19 जनवरी जिसे कश्मीरी पंडित निष्कासन दिवस के रूप मे मनाते है। एक रात जिसकी आज तक भी कोई सुबह नही। 1989 के शरद ऋतु के आते- आते कश्मीर में आतंकवादियों का बोल- बाला था।
राज्य सरकार ने अपनी सारी नैतिक ज़िमेदारियो का त्याग कर दिया था, और किसी प्रकार का कोई प्रशासन नही रह गया था। आतंकवादीयो के फरमानों का बोल- बाला था।
आतंकवादीयो ने कश्मीर घाटी पर अपना कब्जा कर लिया था। ऐसा लगता था मानो भारतीय होना कोई गुनाह हो। आतंकवादी हिट लिस्ट जारी करने में थे , हर वो इंसान जो भारतीय समर्तक था उसे मुखबिर करार कर दिया था। उसको मारना जेहाद था और पुण्य भी। प्रमुख कश्मीरी पंडितों को पहले से ही निशाना बना कर मारा जा रहा था।
सामाजिक कार्यकर्ता टिपू लाल टपलू को सरे आम दिन दहाड़े श्रीनगर के हवा कदल में उन्ही के घर मे गोली मार दी गयी। नील कंठ गंजू को करन नगर में मार दिया गया । उनका शव सड़क पर कई घंटों तक पड़ा रहा। वकील प्रेम नाथ भट्ट की बेहरहमी से दक्षिण कश्मीर के अनंतनाग शहर में हत्या कर दी गयी।
4 जनवरी 1990 को आफ़ताब समाचार पत्र में हिज्बुल मुजाहिदीन ने प्रेस जारी किया और सभी पंडितो से घाटी छोड़ के जाने को कहा। एक और समाचार पत्र अलस्फा मे भी ये ही खबर छपी थी । जल्द ही ये सारे नोटिस कश्मीरी पंडितों के घर के बाहर चिपका दिए गए। 19 जनवरी को एक फरमान ये भी आया कि हम क्या चाहते आज़ादी, आज़ादी का मतलब ला-इल्लाह-इल- अल्लाह।
19 जनवरी 1990 के उस दुर्भागयपूर्ण रात मे पूरे कश्मीर में मस्जिदों से घोषणा की जा रही थी, हर तरफ खुले आम बंदूके लहराई जा रही थी । जागो – जागो सुबह हुई , रूस ने बाजी हारी है। हिन्द पर लर्जा तरी है ,अब कश्मीर की बारी है।
बार- बार ये नारे मस्ज़िद से चलाया जा रहा था । अगर कश्मीर में रहना है तो अल्लाह हो अकबर कहना होगा। इन्ही के साथ ये भी ये नारे भी चलाये जा रहे थे कि ऐ जालिमो, ऐ काफिरो कश्मीर हमारा छोड़ दो । इन सब नारो के साथ एक नारा और था कश्मीर बनेगा पाकिस्तान पंडित आदमियो के बिना , पंडित औरतो के साथ। और ये नारे ज़ोर – ज़ोर से बोले जा रहे थे।
कश्मीरी पंडित बहुत ज्यादा डर गए थे। लोगो ने महिलाओं को स्टोर रूम में बंद कर दिया था कि अगर भीड़ हमला करे तो वो खुद को आग लगा ले। रलीफ़, गलिफ़ या तलिफ़ या तो हमारे साथ मिल जाओ या मर जाओ , या भाग जाओ। कोई भी गॉव , गली, महोल्ला या शहर ऐसा नही था जहाँ नारों का शोर ना हो। ज्यादातर पंडितो ने जो कुछ भी सामान हो उसे लेके छुपते – छुपाते भाग गए।
अब कश्मीर से पलायन शुरू हो गया था। उस टाइम सरकार , बुद्धिजीवी , निष्पक्षवादियो और देश के प्रति सद्भावना रखने वाले मानो सबके सब कान में रुई डाल के सो गए हो , कोई भी इन सबके बारे में बोलने को तैयार नही था।
19 जनवरी 1990 के बाद कश्मीरी पंडितों का कत्लेआम होना शुरू हो गया था । बधिपुरा में शिक्षिका गिरिजा टिक्कू का गैंग रेप कर उन्हें जिंदा आरी से चिर दिया गया और इसी तरह की लाखों खबरे आने लगी। फिर भी प्रशासन आँखे बंद कर के ये सब देख रहा था। 1991 तक अधिकातर पंडित पलायन कर चुके थे और उन्हें जम्मू के दुर्गम स्थानों में टैंटों में रखा गया ।
60,000 से ज्यादा कश्मीरी पंडितों ने पलायन किया और उनको ऐसे ही शिविरों में रखा गया। एक परिवार को एक टेंट दिया गया, जिसमे 10 और उससे भी ज्यादा लोग एक टेंट में ही सोना पड़ता था। इन शिविरों में बहुत ज्यादा मौते भी हुई। ज्यादातर मौत साँप के काटने और ज्यादा गर्मी की वजह से हुई।