ऋग्वैदिक काल
Rigvedic period
ऋग्वेद भारत के प्राचीन वैदिक संस्कृति का मुख्य आधार है। आर्यों ने सप्त सिंधु प्रदेश में अपने आप को स्थापित करने के बाद जो भी प्रथम साहित्यिक रचना की वो साहित्यिक रचना आज ऋग्वेद के रूप में दुनिया की सबसे प्राचीन साहित्यिक रचना है।
सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के पश्चात ऋग्वेद की एकमात्र ऐसा प्रमाणित माध्यम है, जो हमें भारतीय उपमहाद्वीप पर फल फूल रही वैदिक सभ्यता के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करता है।
इसलिए ऋग्वेद का ऐतिहासिक महत्व है भी अनन्य साधारण है। वैसे ऋग्वेद का कोई भी एक निश्चित निर्माता और निश्चित समय अवधि नहीं है क्योंकि ऋग्वेद की रचना विभिन्न ऋषि-मुनियों ने अलग-अलग समय काल में की थी लेकिन एक बात तो निश्चित है ऋग्वेद के अध्ययन से हम भारतीय सनातन संस्कृति के आदिम एवं शुद्ध स्वरूप को समझ सकते हैं।
ऋग्वैदिक काल 1500 BCE – 1000BCE –
ऋग्वैदिक काल भारतीय इतिहास का वह समय है जब आर्य भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर क्षेत्र पर पूर्ण रूप से स्थापित हो चुके थे। इस समय विभिन्न ऋषिकुल अपने वंश परंपरा के अनुसार सूक्तों का निर्माण किया करते थे।
ऋग्वेद के 10 मंडलों में 2 से लेकर 7 तक के मंडल ऋषिकुल मंडल है।मुख्य रूप से 2 से लेकर 7 तक के मंडल यह ही ऋग्वेद का सबसे प्राचीन भाग है। बाकी मंडल तो ऋग्वैदिक काल के समाप्ति के समय जोड़े गए हैं।
भूतांसि इतिहासकार ऋग्वेद के उन प्राचीन सूक्त रचनाओं के काल को और अंत में संहिता निर्माण के काल को 1500 ईसा पूर्व से लेकर 1000 ईसा पूर्व के बीच मानते हैं। इसीलिए इस संपूर्ण काल को ऋग्वैदिक काल के रूप में देखा जाता हैं।
प्राचीन काल में ऋग्वेद की विभिन्न शाखाएं हुआ करती थी। जिनमें शाकल, बाष्कल, आश्वलायन,शांखायन, माण्डूकायन ये पांच प्रमुख शाखाएं थी। आज उनमें से केवल शाकल शाखा ही उपलब्ध है।
जो पिछले 3000 सालों से वैदिकों के पाठन परंपरा के माध्यम से बिल्कुल अपने हिन्द यूरोपीय भाषा के शुद्ध रूप में टिकी हुई है। यहीं कारण है कि आज भी ऋग्वेद की वैश्विक स्तर पर मान्यता बनी हुई है। ऋग्वेद में कुल मिलाकर 10 मंडल है जिन्हें अध्याय भी कह सकते हैं। जिनमें 1028 सूक्त और उन सूक्तो में 10580 ऋचा/श्लोक है।
- ऋग्वेद के प्रथम मंडल के रचयिता अनेक ऋषि है।
- ऋग्वेद के द्वितीय मंडल के रचयिता गृत्समद है।
- ऋग्वेद के तृतीय मंडल की रचयिता ऋषि विश्वामित्र है।
- ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के रचयिता वामदेव है।
- ऋग्वेद के पंचम मंडल के रचयिता अत्रि है।
- ऋग्वेद के षठम मंडल के रचयिता भारद्वाज है।
- ऋग्वेद के सप्तम मंडल के रचयिता वसिष्ठ है।
- ऋग्वेद के अष्टम मंडल के रचयिता कण्व एवं अंगिरा है।
- ऋग्वेद के नवम मंडल के रचयिता अनेक ऋषि है।
- ऋग्वेद के दशम मंडल के रचयिता अनेक ऋषि है।
ऋग्वैदिक काल में आर्यों का भौगोलिक विस्तार-
ऋग्वेद में आर्यों के निवास स्थान के लिए सप्तसिन्धु प्रदेश का उल्लेख मिलता है। जिसका अर्थ सात नदियों का क्षेत्र है। इन नदियों के प्राचीन एवं आधुनिक नाम कुछ इस प्रकार से है –
- सिंधु -सिंधु
- सरस्वती – सरस्वती
- शतुद्री – सतलज
- विपासा – व्यास
- परुषणी – रावी
- वितस्ता – झेलम
- अस्किनी – चिनाब
ऋग्वेद में सिंधु को सबसे महत्वपूर्ण और सरस्वती को सबसे पवित्र नदी माना गया है। सरस्वती को देवीतमा, मातेतमा एवं नदीतमा भी कहा गया है। ऋग्वेद में कुल मिलाकर 25 नदियों का उल्लेख मिलता है लेकिन उसके नदी सूक्त में केवल 21 नदियों का ही वर्णन है।
अफगानिस्तान के कुभा, करुमु और सुवास्तु इन नदियों के साथ-साथ ऋग्वेद में गंगा नदी का एक बार और यमुना नदी का तीन उल्लेख मिलता है। हिमालय पर्वत की एक चोटी मुजवंत का भी उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। लेकिन विंध्य और सतपुड़ा पर्वत का उल्लेख ऋग्वेद में नहीं मिलता है।
इसी आधार पर ऋग्वैदिक सभ्यता का भौगोलिक क्षेत्र आज के अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्र तक ही सीमित माना जाता है।
ऋग्वेद कालीन राजनीतिक जीवन –
ऋग्वेद वैदिक काल में राज्य का मूल आधार कुल अर्थात परिवार होता था। परिवार का मुखिया कुलभ अथवा गृहपति कहलाता था। कुलों के आधार पर ग्रामों का निर्माण होता था। जिसका प्रमुख ग्रामणी होता था।
अनेक ग्रामीण मिलकर विश बनाते थे। जिसका प्रधान विश्पति कहलाता था। विश से जन बनता था। जिसका प्रमुख जनपति अथवा राजा कहलाता था। अनेक जन मिलकर राष्ट्र बनता था। जिसका प्रमुख सम्राट कहलाता था। इस प्रकार आर्यों की प्रशासनिक इकाईयाँ 5 हिस्सों में बटी हुई थी।
जिनमें कुल, ग्राम विश्, जन और राष्ट्र शामिल थे। ऋग्वैदिक काल में राजतंत्र के साथ-साथ जनतंत्र का भी अस्तित्व समान रूप से दिखाई देता है। जनतांत्रिक संस्थाओं में सभा, समिति, विदथ और गण ये प्रमुख संस्थाएं थी।
इनमें विदथ आर्यों की सबसे प्राचीनतम संस्था थी। जिसमें उपज के भाग का बंटवारा और लड़ाई के पश्चात लूटे गए माल का विभाजन इन बातों पर चर्चा की जाती थी। सभा समाज के श्रेष्ठ एवं कुलीन लोगों की संस्था थी जिसमें महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा की जाती थी।
जबकि समिति सामान्य जनता का प्रतिनिधित्व करती थी। समिति को राजा की नियुक्ति करने का तथा उसे पदक्चुकय करने का और उस पर नियंत्रण रखने का अधिकार था।
ऋग्वैदिक काल में राजा के अधिकार का काफी सीमित थे। राजा ना तो भूमि का स्वामी था, ना ही उसके पास अपनी स्थाई सेना थी। उसे ना ही नयायिक मामलो में दखल देने का अधिकार था और ना ही प्रजा से कर मागने का अधिकार था।
ऐसे में प्रजा खुद स्वेच्छा से राजा को कर दिया करती थी। जिसे बलि कहा जाता था। बलि के बदले राजा प्रजा के सुरक्षा की जिम्मेदारी लेता था। ऋग्वेद में राजा को गोप्ताजनस्य अर्थात कबीले का संरक्षक कहा जाता था तथा पुराभिकत्ता अर्थात नगरों पर विजय पाने वाला कहा गया है। राजा की सहायता के लिए पुरोहित, सेनानी, पुरप, स्पथ ये कुछ अधिकारी दिए जाते थे। जिन्हें रत्नीन कहा जाता था।
ऋग्वेद में परूशननी नदी के तट पर भरत वंश के राजा सुदास और अन्य 10 राजाओं के बीच हुए युद्ध का विस्तृत वर्णन मिलता है। जो दसराज्यन युद्ध के नाम से प्रख्यात है। इस युद्ध में भरत राजा सुदास ने 10 राजाओं पर विजय प्राप्त करके संपूर्ण भूमि पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था।
ऋग्वैदिक काल का सामाजिक जीवन –
ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक समाज था। समाज की सबसे छोटी इकाई कुल का प्रमुख भी पुरुष ही होता था। जिसे कुलभ कहा जाता था। पितृसत्तात्मक समाज होने के बावजूद भी महिलाओं को यथोचित सम्मान दिया जाता था। इस काल में महिलाएं राजनीति में भाग लेती थी। समिति एवं विदत परिस्थितियों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी का वर्णन ऋग्वेद में मिलता है।
महिलाये ने अपने पति के साथ यज्ञ कार्यों में भी भाग ले सकती थी। बाल विवाह, पर्दा प्रथा तथा सती प्रथा का प्रचलन ऋग्वैदिक काल मे नही था। बल्कि स्त्रियों को समान रूप से शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था।
ऋग्वेद में गार्गी, मैत्रीयी, कात्यायनी, लोपामुद्रा, घोषा, सिकता, अपाला एवं विश्ववारा जैसी विदुषी (विद्वान) महिलाओं का वर्णन मिलता है। इसी के साथ साथ विधवाओं को पुनः विवाह करने की अनुमति थी। ऋग्वेद में आजीवन अविवाहित रहने वाली कन्याओं को अमाजू कहा गया है।
ऋग्वैदिक समाज में विवाह को एक पवित्र संस्कार माना जाता था। विवाह में दहेज जैसी कुप्रथा का प्रचलन भी नहीं था। वर्ण व्यवस्था का प्राथमिक रूप ऋग्वेद के दसवें मंडल में देखने को मिलता है। जिसमें शिक्षा में पारंगत व्यक्ति ब्राह्मण, युद्ध मे निपुण व्यक्ति क्षत्रिय, कृषि एवं व्यवसाय करने वाला व्यक्ति वैश्य तथा इन सबको सेवा देने वाला व्यक्ति शुद्र कहलाता था।
ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था चिन्ह या जाति के आधार पर नहीं कर्म के आधार पर थी। ऋग्वैदिक काल के सामाजिक जीवन में भोजन की बात करें तो शाकाहार और मांसाहार दोनों प्रकार के भोजन का उल्लेख ऋग्वेद में है। मनोरंजन के लिए इन लोगों के द्वारा पासा,नृत्य घुड़दौड़ इन क्रियाओं का वर्णन भी ऋग्वेद में मिलता है।
ऋग्वैदिक समाज का आर्थिक जीवन –
ऋग्वैदिक कालीन आर्य ग्रामीण एवं कबीलाई जीवन जीते थे। पशुपालन उनका प्राथमिक एवं कृषि उनका द्वियम व्यवसाय था। वे गाय को सबसे पवित्र पशु मानते थे।गाय को अघन्या कहा जाता था। अर्थात गाय की हत्या करना पाप समझा जाता था।
गाय को धन के रूप में भी देखा जाता था। गाय का विनिमेय के साधन के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता था। आर्यों की ज्यातर लड़ाईया गायों को लेकर ही होती थी। ऋग्वेद में गाय का 176 बार उल्लेख मिलता है। इससे गाय के महत्व को समझा जा सकत हैं।
गाय के पश्चात घोड़ा ऋग्वैदिक समाज का महत्वपूर्ण एवं प्रिय पशु था। ऋग्वेद में अश्व का उल्लेख युद्ध और रथों के सन्दर्भ में कई बार किया गया है। ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल में कृषि संबंधित कार्यों का वर्णन भी मिलता है।
लेकिन ऋग्वैदिक काल में आर्यों का कृषि पर कम और पशु पालन पर ज्यादा जोर था। इस काल में व्यापार बहुत ही सीमित था। विदेशी व्यापार का कोई भी प्रमाण इस दौर में उपलब्ध नहीं है।
मुद्रा न होने की वजह से कबीलों के मध्य वस्तु विनिमय के माध्यम से ही आंतरिक व्यापार किया जाता था। वस्तुओं के विनिमय के लिए गाय, घोड़ा तथा निश्क का उपयोग भी किया जाता था। निश्क संभवतः स्वर्ण का आभूषण या स्वर्ण का टुकड़ा रहता होगा। ऋग्वेद में बढ़ई, रथकार, बुनकर चर्मकार कुम्हार आदि कर्मियों के बारे में भी वर्णन मिलता है।
ऋग्वेद कालीन धार्मिक जीवन –
वैदिक सभ्यता मुख्य रूप से धार्मिक मान्यताओं पर आधारित होने के कारण ऋग्वैदिक काल में भी हमें धार्मिक क्रियाओं का महत्व अधिक दिखाई देता है। ऋग्वैदिक कालीन समाज एक से ज्यादा कई देवताओं के अस्तित्व को मानता था।
लेकिन उनके सभी देवता प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक थे। ऋग्वेद में मूर्ति पूजा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। उनके उपासना का उद्देश्य भौतिक सुखों की प्राप्ति करना था। अपने इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए वे यज्ञ विधि को माध्यम बनते थे। प्रकृति के प्रतिनिधि के रूप में आर्यों के देवताओं को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है।
आकाश के देवता –
सूर्य, धौंस, वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, सविता, आदित्य, उषा, अश्विन आदि देवताओं का समावेश होता है।
अंतरिक्ष के देवता –
इन्द्र, रुद्र, मरुत, वायु, पर्जन्य, यम, प्रजापति आदि देवताओं का समावेश होता है।
पृथ्वी के देवता –
अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, सरस्वती आदि देवताओं का समावेश होता है।
ऋग्वैदिक काल में धौंस अर्थात आकाश के देवता को सबसे प्राचीन देवता तो इंद्र को सबसे महत्वपूर्ण देवता माना गया है। युद्ध नेता के साथ-साथ वर्षा, आंधी, तूफान के देवता माने जाने वाले इंद्र को ऋग्वेद में सबसे ज्यादा 250 सूक्त समर्पित है।
इन्द्र को पुरंदर अर्थात पुरों को ध्वस्त करने वाला भी कहा गया है। ऋग्वैदिक काल के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण देवता अग्नि है। मनुष्य तथा देवताओं के बीच मध्यस्थता करने वाले अग्नि को ऋग्वेद में 200 सूक्त समर्पित है।
अग्नि के पश्चात ऋग्वेद के तीसरे महत्वपूर्ण देवता वरुण है। जलनिधि का प्रतिनिधित्व करने वाले वरुण देवता पर ऋग्वेद में 30 सूक्त समर्पित है । प्रसिद्ध मृत्युंजय मंत्र तथा गायत्री मंत्र ऋग्वेद से ही लिए गए हैं।
सविता अर्थात प्रकाश को समर्पित गायत्री मंत्र का उल्लेख ऋग्वेद के तीसरें मंडल में किया गया है। जिसके रचनाकार ऋषि विश्वामित्र है। ऋग्वेद काल में अश्विन को चिकित्सा के देवता के रूप में माना गया है।
उगते हुए सूर्य को मित्र देवता के रूप में देखा गया है। भूषण को पशु तथा औषधी के देवता के रूप में माना गया है। सोम को पेय रस के देवता के रूप में माना गया है। ऋग्वेद का 9वां मंडल पूर्ण रूप से सोम को ही समर्पित है।
सभी मंडलों में सोम संबंधित रची गई रचनाओं को नवे मंडल में संग्रहित किया गया है। ऋग्वेद में प्राप्त इन सभी वर्णों से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऋग्वैदिक समाज प्राकृति पूजक समाज था। जो ईश्वर में गहरी आस्था रखता था। जिसका प्रभाव उनकी राजनीतिक आर्थिक एवं सामाजिक जीवन पर गहराई से पड़ा था।
ऋग्वेद एवं ऋग्वैदिक सभ्यता आज के भारतीय सनातन संस्कृति का मूल आधार है। इसीलिए सनातन संस्कृति में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति का यह दायित्व है कि वह इस मूलाधार के शुद्ध स्वरूप को समझें और दूसरों को भी समझाएं आज भारतीय सनातन संस्कृति और ऋग्वैदिक संस्कृति में अंतर दिखाई देता है। उसके मुख्य कारण उत्तर वैदिक काल में दिखाई पड़ते हैं।