क्या है काकोरी कांड?

9 अगस्त 1925 को क्रांतिकारियों के एक समूह ने काकोरी स्टेशन में एक ट्रेन में डकैती डाली जिसे आप और हम काकोरी कांड के नाम से जानते हैं ।

काकोरी कांड में प्रमुख क्रांतिकारी-

चंद्रशेखर आजाद, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान , ठाकुर रोशन सिंह, केशव चतुर्वेदी, राजेंद्र सिंह लाहिड़ी, सचिन बख्शी, मन्मनाथ गुप्त, मुरारीलाल खन्ना, मुकुंदी लाल, बनवारी लाल थे ।

हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA)की स्थापना शचीन्द्रनाथ सान्याल ने 1923 मे की थी। जिसे बाद मे हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के नाम से जाना गया।इस क्रांतिकारी पार्टी के लोग आंदोलन व धरने किया करते थे किसके लिए धन की आवश्यकता होती थी और इसी उद्देश्य से डाका डाला करते थे। इन डकैतियों से धन काफी कम मिलता था परंतु निर्दोष व्यक्तियों मारे जाते थे ।इसी कारण से सरकार क्रांतिकारियों को डाकू कहकर बदनाम करते थे। इसी के चलते क्रांतिकारियों ने धीरे धीरे अपने लूट की रणनीति बदली और सरकारी खजाना लूटने की योजना बनाई। काकोरी ट्रेन की डकैती क्रांतिकारियों का पहला बड़ा प्रयास था। काकोरी कांड की डकैती में कुल 4601₹ लूटे गए थे। 11 अगस्त 1925 को पुलिस ने बताया कि डकैत खाकी कमीज़ और हाफ पैंट पहने हुए थे, जिनकी संख्या 25 थी। वह सब पढ़े लिखे लग रहे थे। पिस्तौल मैं से जो कारतूस मिले थे वो वैसे ही थे जैसे बंगाल की राजनीतिक क्रांतिकारी घटनाओं में उपयोग किए गए थे। काकोरी कांड का मुकदमा 10 महीने तक लखनऊ की अदालत रिंग ट्रैक्टर में चला ।इस मुकदमे में सरकार का 10 लाख रुपए खर्च हुए। 6 अप्रैल 1927 को इस मुकदमे का फैसला आया, जिसमें धारा 121अ, 120ब और 396 के तहत सज़ा सुनाई गई ।

काकोरी कांड की पूरी कहानी –

8 अगस्त 1925 को सहारनपुर में एक मीटिंग हुई जो कि राम प्रसाद बिस्मिल जी के घर पर हुई जहां पर चंद्रशेखर आजाद, राजेंद्र सिंह लाहिड़ी, अशफाक उल्ला खान थे और एक निर्णय लिया गया कि अब डकैती करनी होगी। जिस ट्रेन की डकैती की योजना बनाई गई थी, उसमें 10 क्रांतिकारी थे। जिसमें से राजेंद्र सिंह लाहिड़ी ने ट्रेन की चेन खींची। इंजन के पीछे वाले डब्बे में खजाना था उसको नीचे फेंका गया। सबसे बड़ी बात यह थी कि अपने किसी भी हिंदुस्तानी भाई को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया गया चाहे, वह अंग्रेजी वर्दी में क्यों ना हो। इस डकैती को करते समय एक हादसा हुआ जैसे ही सचिंद्र नाथ ट्रेन से नीचे कूदे मन्मनाथ गुप्त को अशफाक उल्ला खान ने अपनी बंदूक दी और एक गोली चली जो की एक व्यक्ति को लगी जिसका नाम मोहम्मद था, और उसी के केस में इनको फसाया गया। यह सब क्रांतिकारी थे पर अंग्रेजों ने इनको डकैत साबित किया। ट्रेन में एक शॉल छूट गई थी। जिस की मदद से अंग्रेजों को पता चला कि यह शॉल किसकी है। उसी वक्त अंग्रेजों ने एक नया लो बना दिया इंडियन पुलिस एक्ट( IPA) । मिश्रा जी नाम के एक व्यक्ति को लाया गया और बोला गया कि यह अंग्रेजो की तरफ से सरकारी वकील होंगे क्रांतिकारियों के लिए, लेकिन बिस्मिल ने मना कर दिया। राम प्रसाद बिस्मिल नए खुद वकालत की। इन सभी क्रांतिकारियों को कैदियों की तरह रखा गया था, जब कोर्ट में राम प्रसाद बिस्मिल ने मुकदमा लड़ना शुरू करा तो उन्होंने साफ-साफ कहा की,

According to the British law when we fight against people , we fought against the rule and the ruler. We fought against the entire constitution. We fought against  your entire Empire. we are the the Prisoners of the war and we should be dealt with the respect as the prisoners of the war. You cannot deal with us as a criminals.

ये उनकी दलील थी ,और यह सुनकर सभी अंग्रेज मानो पागल हो गए हो। होटेन अधिकारी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था ,की मेरे जैसे हजारों होटेन भी कुर्बान हो जाए तो एक बिस्मिल अशफाक, एक रोशन सिंह और चंद्रशेखर आजाद नहीं बन सकते। कोर्ट में जब पूछा गया कि आजाद कहां है तो बिस्मिल ने जवाब दिया कि

इन हिजड़ों की फौज में कोई मर्द ना पाया जाएगा,

इन नपुंसको की सेना में कोई मर्द ना पाया जाएगा,

वह तूफा में जलने वाला चिराग है ,

तेरी लूंगी की फूको के न बुझाया जाएगा,

तुम क्या पकड़ोगे समुंदर को, तुम क्या पकड़ोगे आसमा को,

और कहीं पकड़ भी लिया ,तो तुम क्या पकड़ोगे आजाद को।।

इन सभी के साथ एक कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट किया गया ठाकुर रोशन सिंह द्वारा ,क्योंकि वह इस लूट में शामिल नहीं थे लेकिन उसके बाद भी उनको फांसी की सजा सुनाई गई थी। रोशन सिंह की सजा 5 साल की थी उनको राष्ट्रद्रोह में सजा सुनाई गई थी। जब कोर्ट में रोशन सिंह ने पूछा मुझे कितनी सजा हुई है तो उनसे बोला गया तेरे को 5 साल की सजा मिली है फांसी कि नहीं तभी उन्होंने अपना जूता उतारा और फेंक के मारा और वहां पर कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट हुआ और उनको फांसी की सजा सुनाई गई। तो रोशन सिंह ने कहा ओए बिस्मिल क्या सोच था यार के बगैर फंदे पर चला जाएगा तू सिर्फ इस माँ का बेटा नहीं है आज देख ठाकुर भी तेरे साथ जाएगा।

17 दिसंबर 1927 को गांडा जेल में पहली फांसी राजेंद्र नाथ लाहिड़ी को दी गई। इसके बाद 19 दिसंबर 1927 को पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फांसी दी गई। फांसी के तख्ते की ओर जाते हुए पंडित राम प्रसाद बिस्मिल जोर जोर से भारत माता की जय और वंदे मातरम कहते हुए आगे बढ़े रहे थे। और उसी समय चलते हुए उन्होंने कहा-

मालिक तेरी रजा रहे और तू ही रहे,

बाकी न मैं रहूं, न मेरी आरजू रहे।

जब तक कि तन में जान, रगों में लहू रहे

तेरा हो जिक्र या, तेरी ही जुस्तजू रहे।

काकोरी कांड में तीसरी फांसी ठाकुर रोशन सिंह को दी गई जिन्हें इलाहाबाद में फांसी दी गई थी।

error: Content is protected !!