सलोणादित्य वंश (Salonaditya Dynasty)-

सलोणादित्य वंश के पहले राजा सलोणादित्य थे।`इनने कोई उपाधि धारण नहीं की थी।इनकी पत्नी का नाम सिंध बलि देवी था।

इछत देव/इक्षत देव-

यह एक विद्वान प्रकृति का राजा था।बालुकेश्वर तथा पांडुकेश्वेर ताम्रपत्रों से यह पुष्टि हुई की सलोणादित्य वंश का द्वितीय संस्थापक इक्षत देव था।इसकी पत्नी सिन्धु देवी थी।

उपाधि- परमभट्टारक महाराजाधिराज महाराजापरमेश्वर

देशक देव-

देशक देव दान देने के लिए जाना जाता था। यह ब्राहमणों को सोना दान दिया करता था।दशक देव अनाथों की सहयता किया करता था।इसकी पत्नी पझ्ल्ल देवी थी।

उपाधि- परमभट्टारक महाराजाधिराज

पदम देव-

इस शासक ने अपने शासन के 25वें वर्ष में बद्रीनाथ मंदिर को भूमि दान दी थी।इसके पुत्र का नाम शुभिक्षराज था।

शुभिक्षराज-

शुभिक्षराज ने राजधानी कार्तिकेयपुर से शुभिक्षपुर स्थान्तरित की थी।

नरसिंह देव-

इसने जोशीमठ में नरसिंह देव का मंदिर बनाया था।शुभिक्षराज के वंशज नरसिंह देव द्वारा राजधानी बैजनाथ स्थान्तरित की थी।

प्रितम देव-

जन स्त्रुतियो के अनुसार प्रितम देव,धाम देव,ब्रहम देव से कत्यूरी शासकों की जानकारी मिलती है।इनकी पत्नी जियारानी थी।जो कत्यूरियो की कुल देवी थी।जागर लोक गीतों में इन्हें पृथ्वीपाल,प्रीतम शाही,पिथौणा शाही तथा राजा पितिहिर आदि नामों से जाना जाता है। इनके पुत्र का नाम धाम देव था।

जियारानी-

जियारानी के बचपन का नाम मोला देवी था।इनके अन्य नाम पिंग्ला और पियोला थे।इनको कुमाऊँ की लक्ष्मी बाई,कुमाऊँ की न्याय देवी माना जाता है।जिया रानी हरिद्वार के राजा अमर देव पुण्डीर की पुत्री थी।1398 में तैमूर लंग के आक्रमण के समय हरिद्वार के राजा अमर देव पुण्डीर थे।इस समय अमर देव की सहायता प्रीतम देव ने की थी,तथा युद्ध समाप्त होने के पश्चात् अमर देव ने अपनी पुत्री जिया रानी का विवाह प्रीतम देव से कर दिया था।

1420 में दिल्ली के सैय्यद सुलतानों की सेना ने कटिहर राजा हरी सिंह का पीछा करते हुए तराई भाभर तक आ पहुँची। सैय्यद सेना के विरोध के बावजूद भी जिया रानी ने हरी सिंह को शरण दी थी।जिसके फलस्वरूप हल्द्वानी काठगोदाम क्षेत्र में जिया रानी व सैय्यद सेना के मध्य युद्ध हुआ था।युद्ध के दुरान जिया रानी घायल हो गयी तथा 8 दिनों तक रानी ने सैय्यद सेना का सामना किया था। अंततः रानी रानीबाग काठगोदाम में एक गुफा में छुप गयी और बाद में रानी की मृत्यु हो गयी थी।

रानीबाग में चित्रशिला घाट में जिया रानी की समाधि है। चित्रशिला घाट में प्रत्येक वर्ष इनकी याद में जनवरी माग में मेला आयोजित किया जाता है।

धाम देव-

ध्स्स्म देव एक धार्मिक राजा था।वंशावली में इसका नाम दुलाराजा कहा गया है।जागरो में इनको दूलाशाही कहा जाता है।इसने बिजनौर के धामपुर नगर को बसाया था।इसके पिता का नाम प्रीतम देव तथा माता का नाम जियारानी था।

ब्रहमदेव/विरमदेव-

यह कत्यूरी राजवंश का अंतिम राजा था।यह एक बहुत अत्याचारी शासक था।इसने कर वसूलने में बदलाव किये थे।इसने अपनी मामी तिलोत्तमा देवी से जबरन शादी की थी।जिससे राजवंश में अधर्म फैला व यही अधर्म कत्यूरी राजवंश के पतन का कारण बना।इसने कंधो पर पालकी बाधने की प्रथा चलाई थी।ब्रहमदेव की मृत्यु के बाद कत्यूर वंश छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गया था।

बाहुवाण राज वंश-

इस राजवंश का विस्तार वर्तमान देहरादून के चकराता में हुआ था।इस राजवंश की जानकारी अंटालनाथ सूरी के निर्णयामृत से मिलती है।इस पुस्तक में बाहुवाण राजवंश के 7 राजाओं के नाम मिलते है।बाहुवाण वंश का पंचम राजा सूर्य सैन के दरबारी कवी थे।

राणा देवपाल सिंह-

यह वंश सिरमौर राज्य में स्थित था।इस वंश की जानकारी मिन्हाज-उस-सिराज की पुस्तक तसकात-ए-नासिरी से मिलती है।देवपाल ने नसीरुद्दीन महमूद (दिल्ली सल्तनत) के गुलाम वंश के शासक के विरोधियो को अपने राज्य मेशरण दी थी।इस कारण से गुलाम वंश का शासक बलवान बना और बाद में बलवान ने देवपाल के राज्य में आक्रमण कर दिया।

नसीरुद्दीन महमूद पहला मुस्लिम शासक था जिस सिरगौर में आक्रमण किया।अंत में इस वंश को पवार राजा अजयपाल द्वारा जीता गया

गणपति मंगलसिंह-

दुमंग राज्य रुद्रप्रयाग के मन्दाकिनी घाटी में स्थित था।यहाँ पर मंगल सिंह के द्वारा शासन किया था।इस वंश को भी पवार वंश ने जीत लिया था।

काली कुमाऊँ का खस राज

काली कुमाऊँ (चम्पावत) के क्षेत्र में 15 राजाओं ने शासन किया था।यहाँ बीजड,जीजड आदि ने राज किया था।

गंगोली कमडकोट-

यह राज्य डोटी राज्य (नेपाल) के अधीन था,जिसे अंत में चंद वंश ने अपने अधीन कर लिया था।

मणदेव राजवंश-

1246 A.D. में मणदेव राजा ने गुप्तकाशी में एक मदिर का निर्माण कराया था।बाद में इस वंश में पावर वंश अधिकार कर लिया था।

चांदपुरगढ़ी का पवार वंश-

इसे परमार वंश भी कहा जाता है।इसका विस्तार वर्तमान चमोली से हुआ था।पवार वंश प्रारभ में कार्तिकेयपुर /कत्यूरी वंश के सामंत थे।सामंत को उत्तराखंड में मांडीलिक बोला गया है।बाद में इन्होने खुद को स्वतन्त्र कर लिया था।

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