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उत्तराखंड की चित्रकला व लोकचित्र का इतिहास

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उत्तराखंड की चित्रकला व लोकचित्र का इतिहास


History of painting and folk painting of Uttarakhand


1) प्राचीन काल –

चित्रकला के सबसे प्राचीनतम नमूने लाखू उड्यार,ग्वारख्या,किमनी गाँव,ल्वेथाप,हुडली,पेटशाल,फलसिमा आदि गुफाओं में देखने को मिलते हैं।

लाखू गुफा –

  • यह अल्मोड़ा में स्थित है।
  • इस शैल चित्र में मानव को अकेले या समूह में नृत्य करते हुए दर्शाया गया है।
  • इसके अलावा विभिन्न पशुओं की भी चित्रित किया है व इन सभी चित्रों को अलग अलग रंगों से सजाया भी गया है।

ग्वारख्या गुफा-

  • यह गुफा चमोली में स्थित है।
  • इस गुफा में अनके पशुओं का चित्रण है जो की लाखू के मुकाबले अधिक चटकदार हैं।

किमनी गाँव –

  • यह चमोली जनपद में स्थित है।
  • इस शैल चित्र में अधिकतर चित्र हथियार व पशुओं के हैं, जिन्हें सफेद रंगों से रंगा गया है।

ल्वेथाप-

  • यह अल्मोड़ा जनपद में स्थित है।
  • इसमें मानव को शिकार करते हुए दिखाया गया है और महिलाओं व पुरुषों को हाथ में हाथ डालकर नृत्य करते हुए दर्शाया गया हैं।

हुडली गुफा-

  • यह उत्तरकाशी जनपद में स्थित है।
  • यहाँ के चित्रों को नीले रंग से दर्शाया गया है।

2) मध्य व आधुनिक काल –

  • 16 वीं सदी से लेकर 19 वीं सदी तक राज्य में चित्रकला की “गढ़वाल शैली” प्रचलित रही।
  • गढ़वाल शैली पहाड़ी शैली का ही एक भाग है, जिसका विकास गढ़वाल नरेशों के संरक्षण में हुआ था।
  • सन 1658 में गढ़वाल नरेश पृथ्वीपति शाह के समय मुग़ल सहजादा सुलेमान शिकोह अपने दो दरबारी चित्रकार श्यामदास व हरदास को लेकर गढ़वाल आया और इन्हें यहीं छोड़ दिया था।
  • हरदास के वंशज गढ़वाल शैली के विकास में लगे रहे।
  • हरदास का पुत्र हीरालाल का पुत्र मंगतराम का पुत्र मोलाराम तोमर ( गढ़वाल शैली का सबसे महान चित्रकार था)।
  • इसे प्रदीप शाह,ललित शाह,जयकृत शाह व प्रदुम्न शाह का संरक्षण प्राप्त हुआ था।

मोलाराम-

  • मोलाराम का जन्म मंगतराम व रामी देवी के घर 1743 गढ़वाल(श्रीनगर) में हुआ था।
  • मोल्राराम ने हिंदी पद्य में “गढ़वाल राजवंश का इतिहास” लिखा था।
  • जो की इनकी सबसे प्रसिद्द रचना थी।
  • इनके ऊपर बेरिस्टर मुकुंदीलाल ने सन 1968 में एक पुस्तक भी लिखी थी तथा 1969 में मुकुन्दी लाल ने ही इनके चित्रों को दुनिया के सामने रखा था।
  • मोल्राराम का पारिवारिक पेशा सुनार था।
  • इनके चित्रों का संग्रह आज भी बोस्टन म्युजियम में संगृहीत है।

गढ़वाल शैली के तथ्यों को दर्शाने वाली महत्वपूर्ण पुस्तकें निम्न हैं-

1) मुकुन्दीलाल की अंग्रेजी में लिखित “गढ़वाल पेंटिंग”,”सम नोट्स ऑन मोलाराम” और “गढ़वाल स्कूल ऑफ़ पेंटिंग” आदि।
2) वि.आर्चर की गढ़वाल पेंटिंग(अंग्रेजी)।
3) डा.कठोच की गढ़वाल चित्रशैली: एक सर्वेक्षण।
4) किशोरीलाल बैध की “पहाड़ी चित्रकला” आदि।

लोकचित्र-

चित्रकला की गढ़वाल शैली के अलावा राज्य में विभिन्न मांगलिक अवसरों पर ऐपण,ज्युति मातृक,प्रकीण,पौ आदि चित्र बनाने की परम्परा है।

जिनका संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार से है।

a) ऐपण –

  • ऐपण से तात्पर्य लीपने या सजावट करने से है।
  • जो की किसी मांगलिक या धार्मिक अवसर पर ही किया जाता है।
  • इसको देहरी या घर के आँगन में विस्वार (चावल के आंटे का घोल) तथा लाल मिटटी से सुन्दर चित्रों के रूप में बनाई जाता है।
  • इसके तहत सूर्य,चन्द्र,सवास्तिक,संख,घंटा,सर्प आदि आकृतियाँ बनाई जाती हैं।
  • इन्ही आकृतियों को चौक,रंगोली,अल्पना आदि नामों से भी जाना जाता है।

b) ज्युति मातृका चित्र-

  • इसमें विभिन्न रंगों के प्रयोगों से देवी देवताओं के सुन्दर सुन्दर चित्र बनाये जाते हैं।
  • ऐसे चित्र प्रायः जन्मास्टम,दशहरा,नवरात्री,दीपावली आदि त्योहारों व मांगलिक अवसरों में बनाये जाते हैं।

c) प्रकीण चित्र-

  • इसके अंतर्गत रंग व ब्रश या अँगुलियों के माध्यम से कागज़,दरवाजों चौराहों आदि पर विभिन्न प्रकार के चित्र बनाये जाते हैं।

d) लक्ष्मी पौ चित्र-

  • दीपावली के अवसर पर घर मुख्य द्वार से तिजोरी तक या पूजागृह तक लक्ष्मी के पद या पाँव चिन्ह बनाये जाते हैं।

कुछ अन्य प्रकार के चित्रांकन-

  • इसमें आरती की थाली पर “सैली”,शुभ कार्य में बुरी आत्माओं से बचाव हेतु “स्यो”,मंडप पर “खोपड़िया”,प्रवेश द्वारों पर चिपकाने हेतु लाल-पीले रंग के “म्वाली” आदि प्रमुख है।
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