राजस्थान की हस्तकला/ लोककला (भाग – 4)
Handicraft/Folk Art of Rajasthan (Part – 4)
फूलकारी –
- फूलकारी नाथद्वारा राजसमन्द की है।
- फूलकारी को भौगोलिक चिन्हीकरण में शामिल किया गया है।
चुनरी – ओढ़नी में बनने वाला बूंदाकार डिज़ाइन चुनरी कहलाती है।
धणक – ओढ़नी में बनने वाला आयताकार डिज़ाइन धणक कहलाता है।
बातिक कला –
- कपड़े पर कच्चा चित्र बनाकर उसके उप्पर मोम का लेप कर देना बातिक कला कहलाती है।
- बातिक कला का प्रमुख केंद्र खण्डेला (सीकर) है।
- इसके प्रमुख कलाकार उमेशचन्द्र शर्मा व अब्दुल मजीद है।
ब्लू पाँटरी –
- मिट्टी से बनी कला को पाँटरी कहा जाता है।
- हरा काँच, क्वार्ट्ज पाउडर , सोडियम कार्बोनेट , गोंद , मुल्तानी मिट्टी , नीला रंग को 800 डिग्री सेंटीग्रेड में इनको मिलाकर तपाया जाता है।
- ब्लू पाँटरी जयपुर जिले की प्रसिद्ध है।
- इस कला मुख्यत: ईरान (पर्शिया) की थी। इसका उद्गम स्थान दमिश्क था।
- अकबर इस कला को लेकर लाहौर आया था। लाहौर से इस कला को मान सिंह प्रथम आमेर लेकर आये थे।
- ब्लू पाँटरी कला का स्वर्ण काल राम सिंह द्वितीय का काल था।
- राम सिंह द्वितीय ने चुडामन व कालू कुम्हार को यह कला सिखने के लिए दिल्ली के भोला ब्राहमण के पास भेजा था।
- ब्लू पाँटरी कला का जादूगर कृपालसिंह शेखावत को कहा जाता है।
- ब्लू पाँटरी कला की महिला चित्रकार – नाथू बाई
- ब्लू पाँटरी कला को भौगोलिक चिन्हीकरण में शामिल किया गया है।
कृपालसिंह शेखावत –
- कृपालसिंह शेखावत का जन्म 1922 मऊ गाँव, सीकर में हुआ था।
- कृपालसिंह शेखावत के गुरु का नाम भुरसिंह शेखावत थे। भुरसिंह शेखावत को गाँवों का चितेरा (चित्रकार) कहा जाता था।
- कृपालसिंह शेखावत ने 25 प्राकृतिक रंगों का प्रयोग ब्लू पाँटरी कला में किया था।
- इन्हें 1974 ई. में पद्मश्री पुरुस्कार से सम्मानित किया गया था।
- इन्हें सन् 2000 में शिल्प गुरु सम्मान से सम्मानित किया गया था।
- वर्तमान में ब्लू पाँटरी के कलाकार गोपाल सिंह है।
पोकरण पाँटरी –
- पोकरण पाँटरी को भौगोलिक चिन्हीकरण में शामिल किया गया है।
- पोकरण पाँटरी जैसलमेर जिले की प्रसिद्ध है।
- मिट्टी से बनी कलात्मक वस्तुएं (मुख्यत: बर्तन) पोकरण पाँटरी कहलाती है।
ब्लैक पाँटरी –
- ब्लैक पाँटरी कोटा की प्रसिद्ध है।
कागजी पाँटरी –
- कागजी पाँटरी को ही डबलकट पाँटरी कहा जाता है।
- कागजी पाँटरी को ही परतदार पाँटरी कहा जाता है।
- यह पाँटरी अलवर की है।
- इसके कलाकार – फतेहराम (रामगढ़ , अलवर)
सुनहरी टेरीकोटा (सुनहरी पाँटरी) –
- सुनहरी टेरीकोटा बीकानेर की प्रसिद्ध है।
टेरीकोटा कला –
- टेरीकोटा कला का मुख्य केंद्र मोलेला गाँव, राजसमन्द है।
- इस कला में सोलानाड़ा तालाब की मिट्टी का प्रयोग किया जाता है।
- इसके मुख्य कलाकार मोहनलाल जी कुम्हार है।
- मोहनलाल जी कुमार को इस कला के लिए राष्ट्रपति पुरुस्कार मिला था।
- इस कला के कलाकार खेमाराम भी है।
- मोलेला गाँव में तालाब की मिट्टी के साथ गधे की लीद मिलाकर मिट्टी को पकाकर मृण मूर्तियाँ बनायी जाती है।
- सर्वाधिक मूर्तियाँ देवी- देवताओं की आदिवासी क्षेत्र के लोगों के लिए बनाई जाती है।
- इसमें मुख्यतः देव नारायण जी की मूर्ति भी बनाई जाती है।
- टेराकोटा कला में खिलौने व मिट्टी के बर्तन भी बनाये जाते है।
राली – जो निचे बिछाने की दरी को राली कहते है।
खेस – चोमूं (जयपुर)
खेसला – लेटा गाँव , जालौर
दरिया – टांकला (नागौर), सालाबस (जोधपुर), लवाण (दौसा)
बाखला – ऊंट के बालों से सुत को काटकर/ कातना (बीकानेर)
जटपट्टी – बकरी के बालों से बना हुआ कपड़ा जटपट्टी कहलाता है। (जसोल बाड़मेर)
थेवा कला –
- थेवा कला प्रतापगढ़ की प्रसिद्ध है।
- बेल्जियम काँच पर किया गया सुनहरा चित्रांकन थेवा कला कहलाता है।
- थेवा कला को भौगोलिक चिन्हीकरण में शामिल किया गया है।
- इस कला का प्रमुख रंग हरा है।
- प्रतापगढ़ के शासक सावंत सिंह के समय इस कला की शुरुवात हुई थी।
- थेवा कला के प्रवर्तक नाथु जी सोनी थे।
- थेवा कला का कार्य केवल सोनी परिवार के पुरुष करते है।
- थेवा कला के लिए एक ही परिवार के लगभग 8 व्यक्तियों को अब तब राष्ट्रपति पुरूस्कार से सम्मानित किया जा चूका है।
- महेश राज सोनी को थेवा कला के लिए 2015 में पद्मश्री पुरूस्कार से सम्मानित किया गया था।
- इन्हें ब्रिटिश संसद “हाउस ऑफ कामन्स” से सम्मानित किया गया था।
- यह कला इनसाइक्लो पीडिया ऑफ ब्रिटेंनका में शामिल है।
- इसके अन्य कलाकार राजेंद्र सोनी, गिरिश कुमार सोनी है।
- थेवा कला पर 15 नवम्बर 2002 को 5 रुपये का डाक टिकट जारी किया गया था।
उस्ता कला –
- लाहौर से यह कला बीकानेर आई थी।
- उस्ता कला के कलाकार उस्ताद कहलाते है।
- ऊंट की खाल पर किया गया सुनहरा चित्रांकन उस्ता कला कहलाता है।
- बीकानेर के शासक राय सिंह राठौर व अनूपसिंह के समय ककनुद्दीन व अलीराजा कलाकार बीकानेर आये थे।
- उस्ता कला को मुनव्वती कला भी कहते है।
- उस्ता कला बीकानेर जिले की प्रसिद्ध है।
- अनूपसिंह का काल स्वर्ण काल था।
हिसामुद्दीन उस्ता –
- हिसामुद्दीन उस्ता का जन्म 16 नवम्बर 1914 ई. को दुलमेरा (बीकानेर) में हुआ था।
- इनके पिता का नाम मुराद बक्श था।
- इनके गुरु का नाम कादर बक्श था।
- 1986 में हिसामुद्दीन उस्ता पद्मश्री पुरूस्कार मिला था।
- केमल हाइट ट्रेनिंग स्कूल की स्थापना 15 अगस्त 1975 को बीकानेर में हुई थी। इसका पहला निर्देशक हिसामुद्दीन उस्ता को बनाया गया था।
- इलाही बक्श ने महाराजा गंगा सिंह का चित्र बनाया था जिसकी प्रतिलिपि न्यू यॉर्क में है।
- हनीफ उस्ता ने अजमेर में ख्वाजा साहब की दरगाह में सुनहरा नक्काशी का कार्य किया था।
मथेरण कला –
- मथेरण कला जैन कलाकारों द्वारा बनाई जाती है।
- मथेरण कला बीकानेर जिले की प्रसिद्ध है।
- पौराणिक कथाओं पर आधारित देवी- देवताओं का चित्रण मथेरण कला कहलाती है।
- गोबर से लिपि गयी सफ़ेदी के बाद नीले रंगों से बनाया गया सुनहरा चित्रांकन
पेपरमेशी कला –
- इस कला को कुट्टी मुट्टी कला भी कहा जाता है।
- कागज की लुग्दी से बांये गये डिज़ाइन या चित्र को पेपरमेशी कला कहते है।
- पेपरमेशी कला जयपुर की प्रसिद्ध है।
- इस कला के सभी कलाकार वनस्थली (टोंक) के है।
- इस कला के कलाकार वीरेंदर शर्मा, देवकी नंदन शर्मा, भवानी शंकर शर्मा व मंजू शर्मा है।
- इस कला में कागज की लुग्दी से पेन स्टैंड , फूल स्टैंड व अन्य कलात्मक सजावटी सामान बनाया जाता है।
रमकड़ा कला –
- घिया पत्थर/ सोपस्टोन को तराशकर बनाई गयी वस्तुएं रमकड़ा कला कहलाती है।
- रमकड़ा कला गलिया कोट (डूंगरपुर) की प्रसिद्ध है।
कावड़ –
- कावड़ बस्सी (चितौड़गढ़) की प्रसिद्ध है।
- बस्सी में खेरादी जाति के लोगो द्वारा कावड़ का सर्वाधिक कार्य किया जाता है।
- इसमें लाल रंग का प्रयोग किया जाता है।
- श्रावण माह में भगवान् शिव के लिए जल लाया जाता है।
- इस कला के कलाकार मांगीलाल मिस्त्री, द्वारका प्रसाद जांगिड़ है।
- कावड़ में देवी देवताओं के चित्र बने हुए होते है।
- कावड़ का वाचन होता है, वाचन करने वाले को कावड़िया भाट कहा जाता है।
- कावड़ को चलता फिरता देवालय होता है।
तोरण –
- तोरण वियज का प्रतिक, शक्ति परिक्षण का प्रतिक माना जाता है।
- तोरण में उप्पर की ओर चिड़ी या मोर बना होता है।
- तोरण त्रिपोलिया बाज़ार जयपुर के प्रसिद्ध है।
- तोरण शादी के समय वधु पक्ष के घर के दरवाजे पर लटकाया जाता है। वर के द्वारा तलवार/कटार या डाली के द्वारा तोरण मारा जाता है।
बेवाण (मिनीएचर वुडन टेम्पल)-
- लकड़ी का बना हुआ लघु मंदिर बेवाण कहलाता है।
- बेवाण बस्सी (चितौड़गढ़) का प्रसिद्ध है।
- बेवाण का देवझुलनी/ जल झुलनी पर इनका विसर्जन किया जाता है।
NOTE – काष्ठ कला के जन्मदाता प्रभात जी सुथार को माना जाता है। काष्ठ कला की शुरुवात मेवाड़ महाराणा जगतसिंह के समय हुयी थी।
बाजोट –
- भोजन की थाली या पूजा सामर्ग्री रखने के लिए बनाई गयी लकड़ी की चौकी बाजोट कहलाती है।
चौपड़ा –
- मागंलिक अवसरों पर चावल, कुमकुम, अक्षत आदि रखने के लिए लकड़ी का बनाया गया पात्र चौपड़ा कहलाता है।
काष्ठ गणगौर –
- गणगौर की शुरुवात 1652 ई. में मालपुरा (टोंक) में गोविन्द सिंह के समय प्रारंभ हुई थी।
- काष्ठ (लकड़ी) की गणगौर का निर्माण प्रभात जी सुथार ने किया था।
- 350 वर्ष पुरानी गणगौर केसरी सिंह के पास सुरक्षित है।
- गुलाबी गणगौर नाथद्वारा की है।
- बिना इसर के गवर जैसलमेर की है।
- गणगौर महोत्सव जयपुर का प्रसिद्ध है।
- गणगौर शिव पार्वती का प्रतिक है।
तीज त्यौहार बावड़ी ले डूबी गणगौर (यहाँ पर गणगौर के बाद त्यौहारों का समापन माना जाता है और तीज से त्यौहारों की शुरुवात मानी जाती है। गणगौर के अवसर पर सर्वाधिक गीत गाये जाते है।)
कठपुतली –
- कठपुतली उदयपुर की प्रसिद्ध है।
- अरडू की लकड़ी से कठपुतली बनायी जाती है।
- देवीलाल सामर ने इस कला को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचाया था।
- कठपुतली का कार्य उदयपुर के अलावा चितौड़गढ़ व जयपुर है।
- कठपुतली कला को प्रदर्शित करने वाले कलाकारों को भाट कलाकार कहा जाता है।
- कठपुतली संग्रालय बागोर हवेली (उदयपुर) में है।
- लकड़ी से बनाई जाने वाली पूजा साम्रग्री उदयपुर की प्रसिद्ध है।
- काष्ठ शिल्प के लिए/ लकड़ी के खिलोनों के लिए जेठाना (डूंगरपुर) प्रसिद्ध है।