• मूल नाम- गुरबचन सिंह सलारिया
  • पिता – मुंशी राम 
  • माता – धन देवी
  • जन्म- 29 नवम्बर 1935
  • उपाधि – कैप्टन
  • देहांत – 5 दिसम्बर 1961 (उम्र 26)

गुरबचन सिंह सलारिया का जीवन परिचय-

गुरबचन सिंह सलाारिया का जन्म शकगरगढ़, पंजाब,(अब पाकिस्तान में) के पास एक गांव जनवाल में 29 नवंबर 1935 को हुआ था।इनके पिता का नाम मुंशी राम तथा माता का नाम धन देवी था।

पांच भाई-बहनों में ये दुसरे थे।उनके पिता ब्रिटिश भारतीय सेना में हॉसंस हॉर्स के डोगरा स्क्वाड्रन में कार्यरत थे।पिता से उनकी रेजिमेंट की वीरता की कहानिया सुन कर वो बड़े हुए और कम उम्र में सेना में भर्ती होने की प्रेरणा मिली।

भारत-पकिस्तान के विभाजन के बाद सलाारिया परिवार भारत वाले पंजाब में चले आये और गुरदासपुर  जिले के जंगल गॉंव में आकार रहने लगे।गुरबचन ने गॉंव के स्थानीय स्कूल में दाखिला लिया।बाद में वर्ष 1946 में किंग जॉर्ज रॉयल मिलिट्री कॉलेज (केजीआरएमसी) बेंगलुरु में इनका दाखिला किया गया।

अगस्त 1947  में गुरबचन को जालंधर के किंग जॉर्ज रॉयल मिलिट्री कॉलेज (केजीआरएमसी) में भेज दिया गया।पढाई पूरी होने के बाद वह राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) के संयुक्त सेवा विंग में शामिल हुए।1956 में एनडीए से स्नातक पूरा करने के बाद 9 जून 1957 में भारतीय सैन्य अकादमी से अपना अध्ययन पूरा किया।

अध्यन पूरा होने के बाद गुरबचन सिंह सलारिया को 3 गोरखा राइफल्स की दूसरी बटालियन में नियुक्त किया गया था।मार्च 1995 में उन्हें 1 गोरखा राइफल्स की तीसरी बटालियन में स्थानांतरित कर दिया गया।

कांगो संकट में भारतीय सेना का योगदान-

वर्ष 1960 में बेल्जियम से कांगो गणराज्य स्वतंत्र हो गया था।जिसके चलते जुलाई के प्रथम सप्ताह के दौरान कांगो सेना के भीतर काले और सफेद नागरिकों के बीच विद्रोह हो गया था।जिससे पुरे देश में हिंसा भड़क उठी।

इन सबसे प्र्वेसान होकर कांगो सरकार ने संयुक्त राष्ट्र (यूएन) से सहायता की मांग की थी।जिसके चलते 14 जुलाई 1960 को संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की तरफ़ से सहायता मिशन के रूप में जवाब दिया गया।

जैसे ही ये निर्णय लिया गया की संयुक्त राष्ट्र  हस्तक्षेप करेगा वैसे ही शोम्बे के व्यापारी आदि भड़क उठे और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र की सेनाओं के मार्ग में बाधा डालने का उपक्रम शुरु कर दिया।

मार्च-जून 1961 के बीच ब्रिगेडियर के.ए.एस. राजा की कमान के तहत भारत ने 99वीं इन्फैन्ट्री ब्रिगेड के लगभग 3,000 सैनिकों के साथ संयुक्त राष्ट्र बल में योगदान किया।इसी बीच 3/1 गोरखा राइफल्स के मेजर अजीत सिंह को व्यापारियों ने पकड़ लिया और मेजर अजीत सिंह के ड्राइवर की हत्या कर दी गयी।

5 दिसम्बर 1961 को एलिजाबेथ विला के सभी मार्गो को बाधित कर दिया गया,जिससे संयुक्त राष्ट्र के सैन्य दलों को आगे बढ़ने का कोई भी मार्ग नहीं मिल रहा था।तक़रीबन 9 बजे के अस-पास 3/1 गोरखा राइफल्स को आदेश मिले की गोरखा एयरपोर्ट के पास के एलिजाबेथ विला के गोल चक्कर का रास्ता साफ करे।

इस रस्ते को रोकने के लिए विरोधियों के क़रीब डेढ़ सौ सशस्त्र पुलिस कर्मी तैनात थे।योजना बनाई गयी कि आयरिश टैंक के दस्ते के साथ 3/1 गोरखा राइफल्स की चार्ली कम्पनी इन पुलिस कर्मियों पर हमला करेगी।मेजर गोविन्द शर्मा कम्पनी की अगुवाई कर रहे थे।

कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया को बोला गया की वो एयरपोर्ट साइट से आयारिश टैंक दस्तें के साथ हमला करेंगे जिससे किसी भी पुलिस कर्मी को पीछे हटकर हमला करने का मौका न मिल सके तथा कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया की ए कम्पनी के कुछ सैनिक रिजर्व में रखे जाएँगे,यदि कोई भी गड़बड़ हुई तो तुरंत ये सभी मार्चा सम्भाल सके।

कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया ने हमला करने के लिए दोपहर का समय चुना,ताकि अभी सशस्त्र पुलिस बालों पर एक सरप्राइज़ हमला हो और उनको सम्भालने का कोई भी मौका ना मिले।

5 दिसम्बर 1961 कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया दोपहर होने का इंतज़ार कर रहे थे ताकि हमला शुरू कर दिया जाए।दोपहर होते ही कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया ने अपनी टुकड़ी के साथ हमला करना शुरू कर दिया।कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया ने अपनी रॉकेट लांचन टीम की मदद से दुश्मनों को दोनों सशस्त्र कारों को नष्ट कर दिया गया।

गुरबचन सिंह को लगा ये ही सही समय है दुसमन पर अपनी पकड़ मजबूत बनाने का,गुरबचन सिंह ने सोचा इन्हें तितर-बितर कर दिया जाये और फिर सम्भालने का कोई मौका ना दिया जाये।मौके नी नजाकत को समझते हुए गुरबचन सिंह ने तुरंत आगे बदने का फ़ैसला किया।

गुरबचन के पास केवल सोलह सैनिक थे और सामने दुश्मन की तादात सौ जवान की थी।इन स्ब्सके बावजूद बिना परवाह करे वो आगे बढे और दुसमन पर हमला कर दिया।सभी इतने करीब थे की अब आमने-सामने की लड़ाई होने लगी थी।

गोरखाओ ने अपनी खुखरी निकली और हमला करना शुरू कर दिया।गोरखाओ ने दुश्मन के 40 जवानों को मार दिया था,जिससे दुश्मनों में खलबली मच गयी।अब बौखलाए दुश्मनों ने अंधाधुंध गोलिया चलाना शुरू कर दियाथा,जिससे गुरबचन सिंह को गोलिया लगी और वो वीरगति को प्राप्त हो गये।इसके बाद बचे हुए घायल दुश्मन अपने साथियों को छोड़ वहाँ से भाग गये।

परमवीर चक्र-

युद्ध के दौरान अपने कर्तव्य और साहस के लिए वीरगति को प्राप्त कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया को भारत सरकार द्वारा वर्ष 1962 में मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।

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